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मानसरोवर--मुंशी प्रेमचंद जी


न्याय/नब़ी का नीति-निर्वाह मुंशी
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इसलाम पर विधर्मियों के अत्याचार दिन-दिन बढ़ने लगे। अवहेलना की दशा में निकलकर उसने भय के क्षेत्र में प्रेवश किया। शत्रुओं ने उसे समूल नाश करने की आयोजना करना शुरू की। दूर-दूर के कबीलों से मदद मांगी गई। इसलाम में इनती शक्ति न थी कि शस्त्रबल से शत्रुओं को दबा सके। हजरत मुहम्मद ने अन्त को मक्का छोड़कर मदीने की राह ली। उनके कितने ही भक्तों ने उनके साथ हिजरत की। मदीने में पहुंचकर मुसलमानों में एक नई शक्ति, एक नई स्फूर्ति का उदय हुआ। वे नि:शंक होकर धर्म का पालन करने लगे। अब पड़ोसियों से दबने और छिपने की जरूरत न थी। आत्मविश्वास बढ़ा। इधर भी विधर्मियों का सामना करने की तैयारियां होने लगीं।
एक दिन अबुलआस ने आकर स्त्री से कहा—जैनब, हमारे नेताओं ने इसलाम पर जेहाद करने की घोषणा कर दी।
जैनब ने घबराकर कहा—अब तो वे लोग यहां से चले गये फिर जेहाद की क्या जरूरत?
अबु०—मक्का से चले गये, अरब से तो नहीं चले गये, उनकी ज्यादतियां बढ़ती जा रही हैं। जिहाद के सिवा और कोई उपाय नहीं। मेरा उस जिहाद में शरीक होना बहुत जरूरी है।
जैन०—अगर तुम्हारा दिल तुम्हें मजबूर कर रहा है तो शौक से जाओ लेकिन मुझे भी साथ लेते चलो।
अबु०—अपने साथ?
जैन०—हां, मैं वहां आहत मुसलमानों की सेवा-सुश्रुषा करूंगी।
अबु०—शौक से चलो।

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